नया सबेरा नेटवर्क
गोरी लहराई अपनी काली जुल्फें,
उमड़-घुमड़ कर बादल छाने लगे।
बाढ़ -बारिश से सजी ऐसी दुनिया,
झींगुर-दादुर मल्हार वो गाने लगे।
सूख चुके थे जो तड़ागों में पंकज,
फिर से वो सरोवर में खिलने लगे।
कुम्हलाए थे जड़-चेतन के तन-मन,
पानी के वस्त्र से खूब सजने लगे।
डालों पर बच्चे सजाने लगे झूला,
कलियों के घूँघट -पट खुलने लगे।
झूले की डोर मानों बढ़ गई ऐसी,
दुनिया के लोग उसमें झूलने लगे।
आई संस्कार बोने फिर से ये ऋतु,
फिजाओं के कदम फिर बहकने लगे।
राखी के त्योहार से सज गए बाजार,
भाई -बहन के प्यार फिर उमड़ने लगे।
कोयल की कूक से, मोर के नृत्य से,
उन सितारों के पांव भी थिरकने लगे।
सावन की आँखों में छाई ऐसी मस्ती,
मयकदे की डगर लोग भूलने लगे।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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