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आज के हालात पे रोना आया,
गांव हो या शहर, रोना आया।
किस कदर कहर बरपाया वायरस,
बरसती इस मौत पे रोना आया।
हाट- बाज़ार भरा था लोगों से,
उसके सूनेपन पे रोना आया।
कुछ चुरा रहे सांस,तो कुछ दवाइयाँ,
ऐसे दलालों पे रोना आया।
फेंक रहे लोग नदियों में लाशें,
बिना जली लाशों पे रोना आया।
चीख -चीत्कार से भर गया गगन,
दफ़न हुए संबंधियों पे रोना आया।
श्मशान, कब्रिस्तान वो खुद रो रहे,
खौफनाक मंजर पे रोना आया।
न बचा सिंदूर और न ही बची चूड़ी,
बिलबिलाते बच्चों पे रोना आया।
मातम मनाए कब तलक ये दुनिया,
ऐसी मौत की बाढ़ पे रोना आया।
आबादी के मुताबिक हॉस्पिटल नहीं,
इस बदइंतजामी पे रोना आया।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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