नया सबेरा नेटवर्क
नया वैरिएन्ट धोखा देने लगा है,
नित्य, नया अवतार लेने लगा है।
पकड़ में न आता ये आसानी से,
अंदर फेफड़े में यह छिपने लगा है।
देखता जहाँ भीड़भाड़वाली जगह,
छिपकर वहीं से वार करने लगा है।
देखता किसी को बे-मास्क का जब,
आसान शिकार उसे समझने लगा है।
हल्के में न लो , वैरिएन्ट को यारों!
ये जीवन का पर भी कतरने लगा है।
जीवन की नदी रोज सूखने लगी है,
धोखा का पानी फिर बहने लगा है।
मौत की आहट अब सुनाई न देती,
घर की दहलीज तक पहुँचने लगा है।
चीख,चीत्कार,मातम इसके खिलौने,
छिपकर रैलियों में डसने लगा है।
जब से सुना न लोग निकलेंगे बाहर,
थमी इसकी हँसी और रोने लगा है।
शादियों का मौसम औ वो बैंड बाजा,
दूल्हे का घर फिर सजने लगा है।
महकेगी दुनिया मोहब्बत को पाकर,
उछल-कूद फिर दिल करने लगा है।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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