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एक छोटा सा मेरा भी सपना था ,
मेरा भी कोई अपना था
मैं भी उसको बड़े दिल से चाहता था
लेकिन बाद में जब टूटा
तब पता चला मुझको
आखिर वो सपना था ।
खुली आंख मेरी तो तारों का शहर आ गया ,
चांद मेरे सिर के सिरहाने आ गया,
फिर करवट मैने जैसे बदली तो पता चला
ये तो गैरों का शहर आ गया ।
नींद फिर आई नहीं सारी रात बीत गई
वो कालिमा की निशा भी खत्म हुई ,
फिर एक उगते सूरज की किरणों ने मेरे माथे को चूमा
और मैं उसके स्पर्श से अपने सपनों को भुला ।
–रितेश मौर्य
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