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लिवइन रिलेशन में कुछ रहने लगे हैं,
कल्चर को तार-तार करने लगे हैं।
सम्मान औ प्रतिष्ठा भी हो रही क्षीण,
नये दौर का गुल खिलाने लगे हैं।
डूबने लगा अब संस्कार का वो सूरज,
ये दलदल भरी जिन्दगी जीने लगे हैं।
शर्मसार हो रही है हमारी संस्कृति,
फायदे उसके ये गिनाने लगे हैं।
विवाह के बंधनों में ये बंधते नहीं,
मॉडर्न स्टाइल में ये रहने लगे हैं।
एक छत के नीचे ये बेफिक्र हैं सोते,
लग्जरी लाइफ में अब तैरने लगे हैं।
प्रेम के भंवर चूसते रस कलियों का,
सुध-बुध तन-मन की खोने लगे हैं।
खुलेपन की दुनिया इनको है भाती,
बिना लोकलाज के ये रहने लगे हैं।
मारपीट, धोखाधड़ी होता है इसमें,
आये दिन नाटक हम देखने लगे हैं।
राम-सीता,अनुसुइया हैं हमारे आदर्श,
आखिर उन्हें ये क्यों भूलने लगे हैं?
सबके बचाने से ही बचेगी संस्कृति,
पश्चिमी हवाओं पर फ़िदा होने लगे हैं।
है मोक्षदायिनी ये अपनी संस्कृति,
आखिर इसे क्यों कुचलने लगे हैं?
रामकेश एम.यादव(कवि, साहित्यकार)मुंबई,
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