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बारिश की बूंदें टपकने लगी हैं,
आशिकी जहां की बढ़ने लगी है।
छाई थी उदासी दुनिया में कब से,
बीमारी जमीं से उखड़ने लगी है।
हुई अंकुरित जड़ कारखानों की,
ऋतुएँ विकास की पनपने लगी हैं।
हवाओं के आँचल हो गए चंचल,
दिशाएँ दशों फिर थिरकने लगी हैं।
बागों में लौटे फिर से वो भौरें,
घूँघट से कलियाँ निरखने लगी हैं।
मर -मर के दुनिया जिए ये कहाँ तक,
जिंदगी में रस फिर घोलने लगी हैं।
लगी है छलकने मोहब्बत की हाला,
प्यासी ये दुनिया पीने लगी है।
ठहर-सी गई थी जो डालें पवन की,
वो डालें हवा से लचकने लगी हैं।
जादू भरा है कुदरत में देखो!
दुआएँ सभी पर बरसने लगी है।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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