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अवसर तलाशती ये कैसी दुनिया,
सांसों को चुराये,ये कैसी दुनिया।
दौलत के भूखे दरिंदे यहाँ पे,
ऐसे मक्कारों से सजी है दुनिया।
सोती फांकों की चिता, कुछ दुनिया,
दो पाटों के बीच ये पिस रही दुनिया।
खुलेआम बिकती औरतों की अस्मत,
सूली रोज चढ़ती-उतरती वो दुनिया।
ऐसी दुनिया में जीकर क्या करेंगे,
ऐसी दुनिया में रहकर क्या करेंगे?
पल -पल जो बेचे अपने ईमान को,
बदसूरत दुनिया लेके क्या करेंगे?
एक खिलौने के जैसे बना आदमी,
ऊपर से केवल है ये सजा आदमी।
जिन्दा नजर जैसे ये आता नहीं,
बिना सांस के ये चल रहा आदमी।
इंसानियत का मतलब कुछ भी नहीं,
पैसे के अलावा और कुछ भी नहीं।
मुट्ठीभर लोगों के हाँथों में क़ैद,
हम सबका मुकद्दर और कुछ नहीं।
दो गज जमीं, दो गज कफन तक नहीं,
बे-कंधे की लाशें दफ़न तक नहीं।
तैरनी लगी कितनी बदनसीब लाशें,
उन लाशों के मुख तक अगन तक नहीं।
हरिश्चंद्र राजा न ईमान से डिगे,
सिंहासन छोड़ राम वन को गए।
हो क्या गया आजकल के इंशा को,
जिसके लिए भगत सिंह फांसी चढ़े।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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