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सदियों से
लाशों का बोझ ढोते-ढोते
थक गई थी
मणिकर्णिका
रुदन शोक यातना
पीड़ा की कर्मनाशा में
बहते-बहते
बहुत दूर निकल आई थी
बहुत दूर
लाशों की राखों के
पहाड़ का सीना चीरकर
पंख फड़फड़ाकर
नई चिता पर जा बैठती
और धू धू जलने लगती
अग्नि उसका आधार थी
आदिमकालीन रात्रियों की
कसैली धुंध के
पार से उठती
असहाय चीत्कारों के बीच
कभी न थकी
मणिकर्णिका
विराट सामर्थ्य
विशाल साम्राज्य
महान विभूतियों को
भभूत में बदलते देखा
मणिकर्णिका ने
किंतु
कर्तव्य पथ से
तिलमात्र विचलित न हुई
कभी भी
पर इस बार
निश्शेष हुआ गौरव
ढह गया सामर्थ्य
अचानक एक साथ इतनी
निर्दोष लाशों का बोझ
नहीं सह पाई
मणिकर्णिका
हज़ारों बरसों की
अशेष अग्नियाँ भी
भस्म नहीं कर पाईं थीं
संवेदनशील हृदय
मणिकर्णिका का
मर गई
बूढ़ी हताश मणिकर्णिका
लाशों ने ढूँढ़ ली
दूसरी राह
सद्गति की
कोई नहीं आया
कंधा देने
किसी ने नहीं दी अग्नि
कोई मंत्रोच्चार नहीं हुआ
अंतिम संस्कार नहीं हुआ
बीमार मृत पशु की तरह
सहधर्मिणी गंगा की गोद
बहा दी गई
मणिकर्णिका
आओ!
हम प्रार्थना करें
मणिकर्णिका के लिए
उसकी मुक्ति के लिए
ख़ुद मणिकर्णिका बनने से
ठीक पहले
-हूबनाथ
प्रोफेसर, मुंबई विश्वविद्यालय
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