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आयु विद्या धनं कर्म निधनं तथा
गर्भ में हीं नियत पञ्च हो जाते है
लाभ-क्षति यश-अयशऔर जीवन मरण
विधि के हाथों में हीं ये सदा रहते है।
ज्ञान कुरुक्षेत्र में कृष्ण ने है दिया
कर्म में हीं तो बस सबका अधिकार है
कामना फल की करनी हीं है वासना
भोग लिप्सा में यह सारा संसार है।
मन कमल बढ़ता संपति सलिल की तरह
नीर घटते हीं पर खत्म हो जाता है
धन के बढ़ने से मन तीव्र बढ़ता सदा
अर्थ बिन कांच सा मन बिखर जाता है।
लाभ औ हानि मिलती हैं जो कर्म से
त्याग उसको हीं हम कर्म पथ पर बढ़ें
फलमें जबचलता कुछबसहमारा नहीं
पाठ नश्वर जगत का ए क्यों हम पढ़े।
छोटे पौधे को भी हम चरा लेते है
सूखा जब हम उसे फिर जला देते हैं
दिखता फल वृक्ष में हांथ फैलाए हम
अंजली खोल भिक्षुक भी बन जाते हैं।
स्वार्थ से घिर गया जितना मानव यहां
स्वार्थी उतने दानव हुए भी नहीं
नेत्र है फिर भी अन्धे बने लोग हैं
होगा उद्धार कैसे पता हीं नहीं।
स्वार्थ की सिद्धि होती है जब जीव की
वासना नित नई जन्म ले लेती है।
पूरी होती नहीं लालसा जीव की
प्यास में उम्र हीं सारी ढल जाती है।
स्वार्थी है जगत जानते लोग हैं
होके अन्धे सभी यूं पड़े रहते हैं
नेह कर लो प्रभू से है परमार्थी
आता संकट प्रभू तब खड़े रहते हैं।
रचनाकार- डॉ. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार
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