नया सबेरा नेटवर्क
बहुत याद आता है गुजरा जमाना,
कागज की कश्ती, वो परिंदा उड़ाना।
लचकती डालों पे बंदर- सा चढ़ना,
मिट्टी से सपनों का घर वो सजाना।
गमकते - महकते वो बाग - बगीचे,
धागे से बांधकर तितली उड़ाना।
सावन के झूले, वो होली के रंग,
बच्चों के संग में हुल्लड़ मचाना।
सनई का फूल, वो बेसन की रोटी,
माँ के हाथों का महकता वो खाना।
इतराना, इठलाना, रूठना, मनाना,
बेपरवाह निश्छल रिश्ता बनाना।
छोटे -छोटे क़दमों से स्कूल जाना,
झुककर बुजुर्गों से आशीष लेना।
हँसी भूल रही ये आज की दुनिया,
कैसे वो भूलूँ,लड़कपन का खजाना।
अब के बच्चे मोबाइल से चिपके,
आता नहीं अब उन्हें गुदगुदाना।
यादों की कश्ती, किशोरवय की मस्ती,
कोई लौटा दे वो मेरा जमाना।
रामकेश एम. यादव(कवि, साहित्यकार), मुंबई
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