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विधा- लघुकथा
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शीर्षक-- गोमती के तट
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शीतल रोज विद्यालय जाती तो उसे नदी पार करना होता था। वह अपनी साइकिल धीरे करना चाहती पर नहीं करती क्योंकि समय से विद्यालय पहुंचना होता था। शीतल बहुत ही शिष्ट और संस्कारी लड़की है। माता-पिता तथा परिवार से मिली सीख
और विद्यालय में गुरूजनों से मिला सद्ज्ञान उसे समय का पाबंद बनाए रखता। प्रतिदिन गोमती नदी पार कर विद्यालय जाती तो उसे लगता नदी के आसपास कुछ अलग तरह की स्थितियां हैं ।एक तरफ मंदिर हैं जहां श्रद्धालु पूजा पाठ में लगे दिखते जबकि दूसरी तरफ कुछ झुग्गी-झोपड़ियां दिखाई पड़तीं जिसमें
कुछ ग़रीब परिवार रहते थे।जो बांस की टोकरी,डलिया आदि सामान तैयार करते बेचते और उसी से अपने परिवार का पेट पालते। दूसरी तरफ कुछ ऊंचे-ऊंचे भवन दिखाई पड़ते। बड़ी बड़ी गाड़ियां खड़ी दिखाई देतीं। अक्सर वह मन में सोचती सड़क के दोनों तरफ़ का दृश्य कितना अलग है
और जीवन का आधार भी अलग है जबकि गोमती और उसके तट तो सबके लिए एक जैसे हैं ।पर इंसानी दुनिया जो उसने खुद गढ़ी है उसमें सबके लिए अलग-अलग व्यवस्थाएं
क्यों हैं जबकि हर इंसान एक सा दिखता है। इसी उधेड़बुन में शीतल ये प्रश्न बार बार मन में सहेजती कि एक दिन यह प्रश्न जरूर उठाएगी कि सूरज, चन्दा ,तारे ,नदी, निर्झर जब भेद नहीं करते तो मनुष्य इतना भेद कैसे और क्यों करता है? वह पूछना चाहती है पर सभी खामोश हैं । गोमती के तट भी खामोश हैं।
स्वरचित, मौलिक
डॉ मधु पाठक
राजा श्रीकृष्ण दत्त स्नातकोत्तर
महाविद्यालय, जौनपुर, उत्तर प्रदेश।
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