माँ कहती थी
लड़कियाँ
दुष्ट होती हैं
ज़मीन में दफ़्न कर दो
तो फूट पड़ती हैं
अंकुर की तरह
दोनों बाँहें फैलाए
घाम जाड़ा बरखा बिजली
सब सहती हैं
फूलती हैं फलती हैं
खिलखिलाती हैं
न मुरझाती हैं
न नष्ट होती हैं
लड़कियाँ
दुष्ट होती हैं
अंधेरे बंद कमरे में
कर दो क़ैद
रौशनी सी झिरती हैं
अंधी बाट पर गिरती हैं
रौशन कर देती हैं राह
क़त्लगाहों की
काट देती हैं ज़िंदगी अंधेरे में
उजालों की ख़ातिर
बड़े कष्ट सहती हैं
लड़कियाँ
दुष्ट होती हैं
घूरे के छोर पर उग जाती हैं
अनायास
पीपल नहीं रेंड़ होती हैं
तिरस्कार सहती साल भर
फूँक दी जाती हैं होली में
बिलकुल हरीभरी
चटचटाती धुँधुँआती जलती हैं
न रोती हैं
न रुष्ट होती हैं
लड़कियाँ
दुष्ट होती हैं
धरती की तरह
उठाती हैं बोझ
समय का समाज का
कुटुंब संस्कार का
घर परिवार का
आठों पहर व्यस्त होती हैं
न रुकती हैं न थमती हैं
न लड़खड़ाती हैं
न सुस्त होती हैं
लड़कियाँ
दुष्ट होती हैं
गंगोत्री से निकलती हैं
हरिद्वार काशी में
पूजी जाती हैं
फिर प्रदूषित होती हैं
कदम कदम पर
सभ्यता का ग़लीज़ ढोती हैं
सूखती हैं हहराती हैं
मस्त रहती हैं
और भ्रष्ट होती हैं
लड़कियाँ
दुष्ट होती हैं
सबसे आख़िर बची जूठन
चाट कर जीती हैं
अरमानों के चीथड़े
आँसुओं से सीती हैं
नीलकंठ नहीं हैं
फिर भी रोज़ ज़हर पीती हैं
बिना पोषण हृष्टपुष्ट होती हैं
लड़कियाँ
सचमुच दुष्ट होती हैं
-हूबनाथ
प्रोफेसर, मुंबई विश्वविद्यालय
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