बे -मौसम की बारिश होने लगी है,
चिंता की लकीरें उभरने लगी हैं।
तोड़ी है हमने पर्यावरण की कमर,
नशेमन पे बिजलियाँ गिरने लगी हैं।
ख़फ़ा है धरा अंदर- बाहर से देखो,
वृक्षों की सूरत बिगड़ने लगी है।
जल,जंगल,पर्वत,पाठर की जवानी,
तबाही के दौर से गुजरने लगे हैं।
ताजी हवा तो अब बची ही नहीं,
फजाओं के पांव उखड़ने लगे हैं।
बिगड़ने लगा कुदरत का संतुलन,
साँसों के धागे भी टूटने लगे हैं।
फूलों की बारिश कराती थीं बहारें,
उनके चेहरे पे बारह बजने लगे हैं।
मत ढूँढ कंक्रीट के जंगल में अमराई,
खेतों में बाजार उगने लगे हैं।
मारी कुल्हाड़ी हमने खुद अपने पांव,
नदियों के तट देखो रोने लगे हैं।
ग्लोबलवार्मिंग का कद इतना बढ़ा,
शहर -शहर जल-समाधि लेने लगे हैं।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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