नया सबेरा नेटवर्क
प्रिय कवि मुक्तिबोध की याद में-
खंडहर के उस छोर
शहर की तरफ
परित्यक्त सूनी बावड़ी के
तेज़ाबी अंधेरे में
वह न जाने कब से बैठा है
किसी को भी नहीं मालूम
किसकी कर रहा प्रतीक्षा
यहाँ अब कौन आएगा
क्योंकर आएगा
थोड़ी अस्थियाँ हैं पास उसके
जिन्हें वह फेंक देना चाहता है
मुक्त होना चाहता
विगत शत पुण्य के आभास से
बावड़ी की इन मुँडेरों पर
गड़े हैं एक रंग के ध्वज
खिले हैं एक रंग के फूल
कँटीली झाड़ियों से घिर चुकी
इस बावड़ी के आसमाँ पर
लटकते पंछियों के शव
कँटीली झाड़ियों में बिंध
छटपटाते मर चुके हैं
उनके पंख कोमल उड़ रहे हैं
आसमानी उस क्षितिज पर
जहाँ से चल रहा है
एक प्रोसेशन
भरी दुपहर
एक सिंहासन पर बैठा
देश का कुख्यात हत्यारा
डोमाजी उस्ताद
सिंहासन के चारों पैर जमे हैं
जर्जर इन्सानी कंधों पर
जिनकी देह पर लत्तर
झलकते लाल लंबे दाग़
बहते ख़ून के
भरी दोपहर के सुल्तानी उजाले में
सब ख़ामोश
मनसबदार
शाइर और सूफ़ी
आलिमो फ़ाज़िल सिपहसालार
सब सरदार हैं ख़ामोश
एक खंभे से उतरकर
शेर चारों चल रहे चुपचाप
खंडित मूर्तियों की नाक से
बहता ख़ून काला पड़ गया जमकर
तिलक और गोखले
रानाडे आगरकर कर्वे
गांधी विनोबा जयप्रकाश
सबकी मूर्तियाँ तरबतर
बहते काले ख़ून से
सबकी दिमाग़ों के नस
फट चुके हैं
दूर कहीं गोडसे मंदिर से
उठता घंटियों का शोर
नभ पर छा रहा है
फ़सल पर टिड्डियों का झुंड
शहर में घूमते नरमुंड
घूरती पाँत गिद्धों की
चली उस बावड़ी की ओर
जहाँ बैठा हुआ वह कह रहा है
जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया को साफ़ करने
के लिए मेहतर चाहिए
लेकिन जिस दुनिया में
मेहतर एक गाली है
दलाली चरित्र चमकाने का
नुस्खा है
वहाँ हर बहादुर ज़रा सा
ज़नखा है
फिर भी सुनो वह कह रहा है
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया
करुणा के दृश्यों से
हाय! मुँह मोड़ गए
बन गए पत्थर
बहुत बहुत ज़्यादा लिया
दिया बहुत बहुत कम
मर गया देश
अरे,जीवित रह गए तुम!!
उसने उठाए
अभिव्यक्ति के ख़तरे
तोड़ने की पुरज़ोर कोशिश की
सारे मठ और गढ़
अपना सब कुछ झोंक दिया
एक आदर्श की तलाश में
और हमने क़ैद कर दिया
उसे सूनी बावड़ी के
तेज़ाबी अंधेरे में
कि इक दिन मर जाएगा
मरे पक्षी सा विदा हो जाएगा
मगर हम भूल बैठे थे
कि उसके शिष्य
सजल उर शिष्य
उसके उस अधूरे कार्य को
उसकी वेदना के स्रोत को
संगत,पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा के मानेंगे
तभी वह मुक्त होगा
तभी हम मुक्त होंगे
सही अर्थों में
-हूबनाथ
प्रोफेसर, मुंबई विश्वविद्यालय
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