नया सबेरा नेटवर्क
कृष्ण-कन्हैया, राधा नागर,
अब तो झलक दिखाओ।
सिसक रही है धरा तुम्हारी,
आकर इसे बचाओ।
उल्टा-सीधा काम हो रहा,
खून की नदी बहाए।
जिसके हाथ में लाठी है,
वो सबको आँख दिखाए।
बिखर रही मानवता जग की,
आकर इसे सजाओ।
सिसक रही है धरा तुम्हारी,
आकर इसे बचाओ।
कृष्ण- कन्हैया, राधा नागर,
अब तो झलक दिखाओ।
नरभक्षी वो गिद्ध के जैसे,
नोंच - नोंच के खाए।
सृजन के सारे सपनों की,
मानों वो लाश बिछाए।
सृजन अधूरा रहे न भू का,
इसको तो सुलझाओ।
सिसक रही है धरा तुम्हारी,
आकर इसे बचाओ।
कृष्ण- कन्हैया, राधा नागर,
अब तो झलक दिखाओ।
रक्षा की जिम्मेदारी जिसकी,
दूर से देखे तमाशा।
लुका -छिपी के उस खेल से,
हाथ लगी है निराशा।
सूख चुके हैं जिनके चेहरे,
अब तो उन्हें हँसाओ।
सिसक रही है धरा तुम्हारी,
आकर इसे बचाओ।
कृष्ण- कन्हैया, राधा नागर,
अब तो झलक दिखाओ।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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