नया सबेरा नेटवर्क
उजड़ी हुई दुनिया मजदूर बसाते हैं,
अपने पसीने से जहां सजाते हैं।
गगनचुंबी इमारतें बनाते हैं देखो,
मरुस्थल में फूल यही तो खिलाते हैं।
ईंट,पत्थर, सरिया के होते हैं ये बने,
यही तो बंगलों में उजाला फैलाते हैं।
ऐसा राष्ट्र-धन लोग कुचलते मनमाना,
ओढ़ते आसमां, ये धरती बिछाते हैं।
नींद की गोलियाँ न खाते हैं ये कभी,
धरती का बोझ मजदूर ही उठाते हैं।
आता है त्योहार, तीज, होली -दिवाली,
खिलौने बिना बच्चे बड़े हो जाते हैं।
चाहते हैं ये भी मिले हवेली -महल,
मगर अपना आंसू धूप में सुखाते हैं।
धरती का ये ईश्वर, धरती का देवता,
फुटपाथ पे बच्चे भूखे सो जाते हैं।
ले जाती है पेट की आग कहाँ -कहाँ,
ताजमहल,लालकिला ये उगा जाते हैं।
औकात नहीं किसी में वो कर्ज उतार ले,
भू -गर्भ से चमकते हीरे यही लाते हैं।
खाते हैं मेहनत की रूखी-सूखी रोटियाँ,
लाचारी के हाथ जवानी लुटा जाते हैं।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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