नया सबेरा नेटवर्क
(मासूमा तलत सिद्दीक़ी)
दिल्ली उच्च न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि विरोध का अधिकार, मौलिक अधिकार है और इसे 'आतंकी गतिविधि' करार नहीं दिया जा सकता। न्यायालय ने संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) के खिलाफ 2020 में विरोध-प्रदर्शन के दौरान उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगे के एक मामले में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्रा देवांगना कालिता को जमानत प्रदान करते हुए उक्त टिप्पणी की। शांतिपूर्ण तरीके से विरोध प्रदर्शन करना ग़ैर कानूनी नही है और न ही आतंकी कार्यवाही है। भड़काऊ भाषण और चक्का जाम करना ऐसे अपराध नही हैं कि उन्हें आतंकी गतिविधयों से जोड़ के देखा जाए और उनपर यूएपीए जैसी संगीन धाराएं लगा दी जाएं। दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश का ये सार पुलिस के साथ साथ आईने की तरह उनलोगों के सामने भी खड़ा है जिन्होंने सिर्फ इसी बात के लिए अभियान चलाया था कि नागरिकता कानून का विरोध करने वाले आतंकी छात्र साजिश कर रहे थे। गोदी मीडिया ने जिस तरह जिन छात्र और छात्राओं को इस आतंकी गतिविधि और आरोप में घसीटा वो सभी ने देखा और उम्मीद करते हैं आपलोगों को याद भी होगा। नताशा नरवाल, देवांगना कालिता, सफूरा ज़रगर, गुलफिशा फातिमा, इशरत जहां, ख़ालिद सैफी, आसिफ इक़बाल तन्हा, उमर ख़ालिद को दिल्ली दंगे में आरोपी बनाकर गिरफ्तार किया गया था। जिसके लिए पिछले एक साल से अदालत ये टिप्पणी रह रही थी कि "पुलिस की तरफ से इनके ख़िलाफ़ अभी तक कोई ठोस सबूत नही आये हैं। जिसे दिल्ली पुलिस लगातार नकार रही थी। सबूत न तब थे और न अब हैं फिर इसके बाद भी इनको जेल में रखकर किस तरह यूएपीए की धारा लगा दी गई"। ये समझने वाले बात है कि इस धारा का इस्तेमाल ऐसे किया जाय कि ज़मानत मिले ही न। जो कुछ अदालत ने टिप्पणी की तो क्या ये सब बात पुलिस नही जानती थी क्या हुक़ूमत नही जानती थी, सब जानते थे सच्चाई तो यही है। अब दिल्ली उच्च न्यायालय ने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की छात्र नताशा नरवाल, देवांगना कलिता और आसिफ इक़बाल तन्हा को वर्ष 2020 के दंगा ‘‘साजिश’’मामले में मंगलवार को जमानत दे दी है और कहा कि "आतंकवाद संबंधी कानून को "लापरवाही’’ से लागू नहीं किया जा सकता और प्रदर्शन करने का अधिकार तथा आतंकवादी गतिविधि के "बीच की रेखा धुंधली" हो रही है और यदि इस मानसिकता को बल मिला तो यह ‘‘लोकतंत्र के लिए एक दुखद दिन होगा।’’ ये जान लीजिए इन छात्रों को ज़मानत मिली है फैसला नही आया है। जो एक साल सलाखों के पीछे चला गया, जो साल भर जेल में रहे तो इसकी भरपाई कौन कर पायेगा, शायद कोई नही कर पायेगा। लेकिन अदालत ने अपनी टिप्पणियों से ये बात साफ कर दी कि इनपर जो आरोप लगाए गए थे उनके कोई ठोस सबूत नही हैं। जिन धाराओं में इनको गिरफ्तार किया गया है उस तरह का कोई आरोप भी नही है चार्जशीट में। इतनी परेशानी और मशक्कत झेलने के बाद ये छात्र मुस्कुराते हुए दिखे तो वो ज़माना याद आ गया जब लोग आज़ादी के पहले मुस्कुराते हुए जेल चले जाते थे। सत्रा हज़ार पन्नों की ग़लत चार्जशीट बनाकर इस तरह के आपराधिक मामले लगाकर जेल में किसी को केवल शांतिपूर्ण तरीके से "विरोध प्रदर्शन" करने के लिए एक साल बंद कर दिया जाय तो, ये तारीखी इतिहास होगा। जिसके कोई सबूत नही थे। छात्रों के प्रदर्शन से कोई राष्ट्रीय बुनियाद नही हिल जाती लेकिन ऐसा देखा गया है कि छात्र प्रदर्शन शायद इतना मज़बूत और इंक़लाबी होता है जिससे प्रशाशन के लोग डर ज़रूर जाते हैं। छात्र अपने कॉलेज में हो रहे किसी ग़लत बात का विरोध करें या राष्ट्रहित में उनको सबसे पहले बत्तमीज़ और ग़लत साबित कर दिया जाता है। फ़िर नौबत यही आती है कि बड़े बड़े झूठे आरोप लगाकर उनको कॉलेज से निकाल दो, या राजद्रोह का आरोप लगाकर जेल में डाल दो।
एक खंडपीठ ने कहा कि अदालत को "गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून में उपयोग किए गए निश्चित शब्दों और वाक्यांशों को लागू करने के दौरान बेहद सावधानी बरतनी होगी। साथ ही ऐसे शब्दों और वाक्याशों को आतंकवादी कृत्य जैसे जघन्य अपराधों में हल्के में लेने से सावधान रहना होगा, बिना यह समझे कि आतंकवाद किस तरह पारंपरिक एवं जघन्य अपराध से अलग है।
पीठ ने कहा कि असंतोष को दबाने और मामला हाथ से निकल सकता है, के इस डर से ''राज्य ने संवैधानिक गारंटी वाले 'विरोध के अधिकार' और 'आतंकी गतिविधि' के बीच की रेखा को धुंधला किया।''
न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी की पीठ ने कलिता के खिलाफ यूएपीए लगाने के मामले में विचार-विमर्श के बाद 83 पन्नों के फैसले में कहा, '' अगर इस तरह का धुंधलापन जोर पकड़ता है, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।'' उन्होंने कहा कि बिना हथियार के शांतिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन करना संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (बी) के अंतर्गत मौलिक अधिकार है और यह अभी बरकरार है। अदालत की तमाम टिप्पणीयों के बाद आप और हम जैसे लोग फौरन लोकतंत्र और मौलिक अधिकार जैसी चीजों पे सोचने बैठ जाते हैं तो कभी ये भी सोचना चाहिए कि क्या उन अफसरों और अधिकारियों को इस बात से कोई फ़र्क पड़ता है जिन्होंने बैठे बैठे सत्रा हज़ार की चार्जशीट लिख डाली। ये हक़ीक़त है कि इन अफसरों का, पुलिस वालों का, और सरकार का कुछ नही जाता, अगर कुछ जाता है किसी का तो उनका जो लंबे अरसे तक सलाखों के पीछे रहते हैं, जेल का ज़ुल्म सहते हैं। दिल्ली पुलिस कोई सबूत पेश नही कर पाई, बस एक आंदोलन को दबाने के लिए साजिश ज़रूर कर गई। समझ मे नही आता ये कैसे भारत की तस्वीर है जहाँ सैकड़ों आरोप लगाकर, तमाम न्यूज़ एंकरों को खड़ा करके, चिल्ला चिल्ला के ग़लत बात को सही साबित किया जाता है।
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