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दाम सामानों के बढ़ने लगे हैं,
त्योहार फीके अब पड़ने लगे हैं।
महंगाई का आलम ऐसा है देखो,
उल्लू वो सीधा करने लगे हैं।
दाल,आटा,चावल,सत्तू तक महंगा,
सिर के बाल तक उखड़ने लगे हैं।
करते हैं सौदा रोज-रोज ईमान का,
बाजार में लोग बिकने लगे हैं।
घर का न घाट का हुआ है ग्राहक,
पैसों पे वो लोग सोने लगे हैं।
थामकर कलेजा बैठा है घर में,
रसोई के चूल्हे बुझने लगे हैं।
भूल रहे हैं लोग अब मुस्कुराना,
शहर तो शहर, गाँव रोने लगे हैं।
बह गया बहुत कुछ वक़्त के सैलाब में,
हाथ से हाथ भी छूटने लगे हैं।
लड़ेंगे किससे लोग, सभी हैं अपने,
ख्वाहिशें सभी अब दबाने लगे हैं।
बादलों से ज्यादा बरसती हैं आँखें,
हौसलों के पर उनके उड़ने लगे हैं।
सोते यहाँ कुछ आसमां ओढ़ के,
धरती का बिछौना बनाने लगे हैं।
धनवानों की है दुनिया ये समझो,
गरीबों के सपने उखड़ने लगे हैं।
जैसे गरीब कोई मधुमक्खी का छत्ता,
महाजन उसे निचोड़ने लगे हैं।
रामकेश एम. यादव(कवि, साहित्यकार), मुंबई
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