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गांव-गांव वो ऐसे मरते रहेंगे,
हास्पिटल बिना हाथ मलते रहेंगे।
कहते हैं भारत, बसता है गांव में,
मगर ये सवाल सदा चुभते रहेंगे।
भरते हैं पेट अन्नदाता सभी का,
होकर अदा भी सिसकते रहेंगे।
कहने को है कि बैठे हैं छाँव में,
मगर बिना पेड़ वो जलते रहेंगे।
आसपास है न कोई टेस्टिंग सेंटर,
बेमौत कब तक वो मरते रहेंगे।
आएगी बहार उन्हें कुछ पता नहीं,
अँधेरे में कब तक भटकते रहेंगे।
एहसास उनका न हो जाए मुर्दा,
योजनाओं के पन्ने छलते रहेंगे।
बहुत बड़ा सफर है जिंदगी का,
नदियों में मुर्दे क्या बहते रहेंगे?
पलकों में मुद्दत से सजाये सपने,
कब तक वे ख्वाब दहकते रहेंगे।
जगमगाते शहर उनके पसीने से,
हैं वो फूल, शहद उगलते रहेंगे।
माँगे गांव एम्स, अब सुनो रहबरो,
राम, वन में कब तक भटकते रहेंगे?
रामकेश एम. यादव
(कवि/साहित्यकार), मुम्बई
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