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चलो अब लौट चलें प्रकृति के गाँव में,
तन -मन निखारेंगे प्रकृति के गाँव में।
अल्हड़,अलवेली वहाँ बहती है,पवन,
सुनाती राग भैरवी, प्रकृति के गाँव में।
निर्मम हत्या कर रहे लोग जंगलों की,
करेंगे शिकायत, प्रकृति के गाँव में।
हुई जहरीली हवा ग्लोबल मार्केट से,
रहेंगे स्वच्छन्द वहाँ प्रकृति के गाँव में।
सुनेंगे मीठे नग्मे, परिंदों के मुख से,
मेघों से बतियाएंगे , प्रकृति के गाँव में।
सांस कोई क्या लेगा जब हवा ही नहीं,
उखड़ती दम बचाएँ, प्रकृति के गाँव में।
मंगल - चाँद मुट्ठी में करना है, वो करे,
मिलेगी वहाँ खंजन, प्रकृति के गाँव में।
पीते हैं होटलों में सांप के सूप भी,
मिलेंगी वहाँ शांति, प्रकृति के गाँव में।
हताहत हुआ नभ कई बार एटम-बम से,
सींचें उर कुदरत का प्रकृति के गाँव में।
सृजन कर संसार का, संहार मत कर,
मिटायेंगे मिथ्याहंकार, प्रकृति के गाँव में।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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