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गंगा की गोद में क्यों अरमान जल रहे हैं?
बेबस किनारे बैठे सब हांथ मल रहे हैं
वाराह शेष कच्छप आंसू बहा रहे हैं
शिव शम्भु होके हर्षित डमरू बजा रहे हैं।
हर घाट पर चितायें कितनी सजी हुई हैं
भूधर सरिस है भैरो संग प्रेतिनी चली है
बैताल भूत हर्षित डायन मगन हुई है
संग योगिनी को लेकर काली पहुंच गई हैं।
शिव का समाज देखा कम्पित शिवा हुई है
विकाराल रूप शंकर का देख डर गई है
भय उर में ले के गौरा शिव शम्भु पहिं गई है
पूछा प्रभू ए क्या है लीला कोइ नई है।
शिव ने कहा शिवा से लीला मेरी नहीं है
सुर धेनु विप्र भय में तुझको पता नहीं है
दिग्पाल शेष कच्छप धरती भी रो रही है
इन सबके संग धरा ने पीड़ा बहुत सही है।
श्री रामचन्द्र स्वामी सेवक मै श्री प्रभू का
आदेश है प्रभू का जो न्याय करते सबका
निज स्वार्थ हेतु कुछ ने बेचा है नाम उनका
यह दण्ड मिल रहा जो फल भोग है उसी का
शिव सम्भु रूप क्रोधित सुरसरि समीप आई
हे नाथ क्रोध त्यागो तुझको मनाने आई
स्वामी हो तुम हमारे वामांगी मैं तुम्हारी
रोको विनाश लीला सुन लो विनय हमारी।
गंगा की बात सुनकर शिव को हंसी है आई
तुमको भी तो है बेचा तूँ जान भी न पाई
नहिं खोलूं नेत्र तीनों समझो यही भलाई
अब भी समय बचा है यदि अक्ल उनमें आई।।
रचनाकार- डॉ. प्रदीप दूबे
(साहित्य शिरोमणि) शिक्षक/पत्रकार
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