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काश, ऐसा हो एक दिन
कि ड्राइंग रूम में
सजने से इंकार कर दे काँटे
पैरों में
चुभने से इंकार कर दे काँटे
वहसी आततायियों की आँखों में
उगने से इंकार कर दे काँटे
काश ऐसा हो एक दिन
कि मजलूमों के आसपास
लाचार बेटियों के इर्द-गिर्द
गोदामों की चहारदीवारी पर
ऊग आयें काँटे
बदल लें अपना स्वरूप
खिल-खिल जाए धूप
काश, ऐसा हो।
लेखिका शुचि मिश्रा जौनपुर
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