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जमींन छोड़ो तो फिर ठिकाना नहीं मिलता,
परिंदे को नभ में आशियाना नहीं मिलता।
हँसी- खुशी से जो बीत जाता है लम्हाँ,
फिर उस तरह का जमाना नहीं मिलता।
बचपन के दोस्त भुलाये से भी नहीं भूलते,
परदेश में फिर वैसा याराना नहीं मिलता।
आजकल भी बन रहीं एक से एक फ़िल्में,
उसमें दर्जेदार अब तराना नहीं मिलता।
आकाश के माथे पर हैं चमकते सितारे,
क्या करूँ कूचे में आना नहीं मिलता।
तरोताजा रहते थे रोज उससे मिलकर,
अब उससे मिलने का बहाना नहीं मिलता।
कोई रहनुमा अपने सूबे में ही रोजगार दे,
क्योंकि शहर में कोई अपना नहीं मिलता।
बहुत साफ-पाक होते थे वो पहले के लोग,
अब के दिलों में वो खजाना नहीं मिलता।
रोज-रोज बदल रही लोगों की जीवन-शैली,
इसलिए सुकूँ का आबो-दाना नहीं मिलता।
रामकेश एम. यादव(कवि, साहित्यकार)मुंबई
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