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सिर्फ़ एक तारीख़ नहीं
एक आईना है
जिसमें झाँको!
पूछो ख़ुद से
ज़िंदा होने का अर्थ
शर्माओ नहीं
मुर्दों की भीड़ में
अकेले नहीं तुम
आत्माएँ औरों की भी
मरी हुई हैं
भागो मत!
शहीदों का लहू
अभी सूखा नहीं है
जिस्म उनके गर्म हैं
साँसें चल रही हैं
उन्हें महसूस करो
अपने भीतर
मुँह मत छिपाओ
कायर तुम अकेले नहीं हो
बोझ सिर्फ़ तुम्हारे ही
सिर पर नहीं है
उनके भी था
जिन्हें साल में एक बार
याद करने की
रस्म अदा करते हो
ज़ालिम अब भी मौजूद है
सिर्फ़ चेहरे और कपड़े
बदल गए हैं
गुरूर और ज़ुबान वही है
मैं नहीं कहता
कि उठो और चूम लो
फंदा फाँसी का
तुममें इतना सामर्थ्य नहीं
बस बुलंद करो
आवाज़ अपनी
ज़ुल्मोसितम के ख़िलाफ़
अहंकारी का घमंड
तोड़ नहीं सकते तो
कोई बात नहीं
पर उसे इतनी तो ख़बर हो
कि जिस राख की ढेर पर
वह बैठा है
उसमें चिन्गारी अभी ज़िंदा है
इतना भी हुआ
तो यह तारीख़
सुर्ख़रू होने पर
अफ़सोस नहीं करेगी
-हूबनाथ
प्रोफेसर, मुंबई विश्वविद्यालय
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