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जब भी निराशा ने दस्तक दी जीवन में
ईश्वर के आगे फैलाया गया उसे
याचना के लिए, वह विस्तार पाता रहा
ढँका उसने सिर को, मान रक्षित करते
अति भोर उठते ही सबसे पहले संभाला गया
प्रतिदिन के आचार-व्यवहार, दैनन्दिन में जुटा
अर्घ्य देते लहराया हवा में दिशाबोध कराते
शिशुओं के मुँह पर लगा दूध-दही, जूठन पोंछ
टाॅफी-बिस्कुट के अवशेष
हींग-मसाले के तड़के से ग़र्म पतीली पकड़
माथे पर आये पसीने को सोखने में रत रहा
और कथा-भागवत की प्रसादी ले बनाकर कश्कोल
पतियों-प्रेमियों के अतिरिक्त प्रेम को
प्रदर्शित-अभिव्यक्त करता, संजोता
जैसे 'अवतार' में राजेश खन्ना का शगल
या कि 'नौकर' संजीव कुमार का ठुमका -
'पल्लो लटके, गोरी को पल्लो लटके।'
छोर में जब भी बाँधी गई चाभियाँ
कमर में खोंसा गृहणी ने
घर का मान, दायित्वबोध कराया उसने
कृष्ण की कटी उँगली पर बाँधा गया फाड़ कर
एक पल्ला ही था जो साड़ी से पहले हाथ आया
बढ़ता ही गया द्रोपदी के तन से
अपने ही अतिचार से मूर्छित हो गिरा आततायी
पल्ले ने सिर पर छाँह की सदैव, रखी इज़्ज़त।
(शुचि मिश्रा)
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