नया सबेरा नेटवर्क
कहने के लिए लोग साथ-साथ चलते हैं,
जरुरत आते ही वो रास्ता बदलते हैं।
मजहब के नाम पे कुछ बहाते हैं खून,
ऐसे खौफ़ न जल्दी मन से उतरते हैं।
जहाँ मिलता है सुकूँ वहीं बैठ जाते हैं,
हम मौसम के जैसे दिल नहीं बदलते हैं।
कड़क मिजाज के लोग हो जाते हैं तन्हा,
हम तो गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं।
पहुँचने को पहुँची दुनिया मंगद -चाँद पे,
गुनाह करने वाले करम कहाँ बदलते हैं।
टकराते हैं जब दो दिल किसी मोड़ पर,
वो हसीन पल फिर ख्वाबों में पलते हैं।
रातभर चाँद-सितारे नहीं निभाते साथ,
निकलते ही सूरज वो ढलने लगते हैं।
गरीबों के पास कहाँ मकां होता है,
अमीर ही देखो अपना घर बदलते हैं।
कौन किस नस्ल का है ये बात छोड़ दो,
मयकदे में रोज पैमाना बदलते हैं।
बदलता नहीं कभी कुदरत का क़ानून,
लोग फायदे के लिए कायदा बदलते हैं।
नहीं देते जो अपने बच्चों को संस्कार,
उम्रभर वो लोग हाथ अपना मलते हैं।
हाथ पे हाथ रखकर बैठना ठीक नहीं,
घर से बाहर निकलो मुकद्दर बदलते हैं।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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