नया सबेरा नेटवर्क
पण्डित सन्तोष तिवारी 'शाण्डिल्य'
रक्षाबन्धन का पावन व पवित्र पर्व पूर्ण रुप से भाई-बहन को समर्पित है । यह पर्व भाई बहन के प्रेम का प्रतीक माना जाता है, रक्षाबन्धन को ही हम राखी का त्योहार भी कहते है। राखी के त्योहार पर भाई बहन के बीच नोंक-झोंक, प्रेम, उपहार, मिठाई और न जाने क्या-क्या...मन में चलता रहता है। इस त्योहार को लेकर भाई बहन के मन में काफी दिन पहले से ही हलचल और शुगबुगाहट शुरु हो जाती है अर्थात् इस पर्व को लेकर मन मे काफी उत्साह का संचार होने लगता है। इस प्रकार हम कह सकते है कि यह त्योहार भाई बहन के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होता है।
रक्षाबन्धन के त्योहार को हम श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाते है, इस दिन बहन अपने भाई की लम्बी आयु और उसके जीवन की मंगलकामनाओं और सुखी जीवन के लिए उसके हाथ में एक रक्षासूत्र बाँधती है। इसी रक्षासूत्र को हम अपनी भाषा में राखी का नाम देते है। राखी बाँधने के अलावा बहन भाई के माथे पर तिलक लगाती है, आरती उतारती है और फिर उसका मुँह मीठा कराने के लिए विभिन्न प्रकार की मिठाई खिलाती है और राखी बँधवाने और मुँह मिठा होने के बाद भाई अपनी प्यारी बहना को उपहार भेंट करता है और साथ ही साथ आजीवन बहन की रक्षा का प्रण लेता है तथा उसके सुख-दुःख में जीवन भर साथ निभाने का वचन देता है।
रक्षाबन्धन की हमारे धर्म ग्रन्थो और शास्त्रों में अनेकानेक कहानियाँ मिलती है। रक्षाबन्धन के महत्व को समझने के लिए कुछ प्रसंग का सहारा लेते है जो इस प्रकार है- एक बार भगवान श्री कृष्ण के हाथों में चोट लग गयी थी तो उस समय द्रोपदी जी ने अपनी साड़ी के पल्लू को फाड़कर श्री कृष्ण जी के हाथो में बाँधा था तो उसी समय श्री कृष्ण जी ने द्रोपदी जी को जीवन भर रक्षा करने का वचन दिया था और समय आने पर उन्होने द्रोपदी जी की कौरवों से रक्षा कि थी। कुछ मान्यताओं के अनुसार इसी समय से रक्षाबन्धन का त्योहार मनाया जाने लगा। एक दूसरी कथा के अनुसार एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण जी से पूछा कि हे भगवन् हमें रक्षाबन्धन के बारे में विस्तार से बताइए तो श्री कृष्ण जी ने जो कथा युधिष्ठिर जी को सुनाई थी वह इस प्रकार है:---एक बार देवताओं और दानवो में भयंकर युद्ध छिड़ गया, युद्ध को समाप्त होने मे १२ वर्ष लग गये। युद्ध के अन्त में दानवों की देवताओं पर विजय प्राप्त हुई, इस प्रकार दानवों का तीनों लोको में आधिपत्य स्थापित हो गया। देवराज इन्द्र पराजित होने के बाद देवगुरु बृहस्पति के पास गये और उनके चरण स्पर्श करके सारा वृत्तान्त सुनाया और उनसे अपनी रक्षा और साम्राज्य वापसी का विधान पूछा तो देवगुरु बृहस्पति ने देवराज इन्द्र की व्यथा देखकर और सुनकर इन्द्र को रक्षा विधान करने को कहा तो इन्द्र ने श्रावण पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल इस मन्त्र के द्वारा रक्षा विधान किया। मन्त्र इस प्रकर हैं-
*येनबद्धो बलिर्राजा दानवेन्द्रो महाबलः ।
तेन त्वामभिवध्नामि रक्षे मा चल मा चलः ।।*
प्रातःकाल इस रक्षा विधान के बाद इन्द्राणी ने विद्वत्जनो (ब्राम्ह्णो) से स्वस्तिवाचन करवाया और एक रक्षा तन्तु (धागा) लिया और इन्द्र की दाहिनी कलाई में बाँधकर उन्हे युद्ध के मैदान में भेजा तो इस रक्षा तन्तु के प्रभाव से दैत्यों की पराजय हुई और देवता विजयी हुए। इस प्रकार मान्यता है कि इसी समय से राखी बन्धन का प्रचलन प्रारम्भ हुआ । हमारे धर्म ग्रन्थों में इस प्रकार की अनेकानेक कहानियाँ मिलती है।
रक्षा बन्धन के दिन भद्राकाल और राहुकाल का विशेष ध्यान दिया जाता है क्योंकि हमारी धार्मिक परम्पराओं के अनुसार इस काल मे राखी बाँधना वर्जित है। संयोग से इस बार राखी के त्योहार पर पूरे भद्रा काल का साया नही है अर्थात् हम पूरे दिन राखी बाँध सकते हैं केवल राहु काल को छोड़कर (राहु काल :--शाम ०५:२६ से ०७:०१ ) यह काल शुभ नही माना जाता। इस काल को छोड़कर राखी का त्योहार मना सकते है। हमारी मान्यताओं और धर्मशास्त्रों के अनुसार सर्वश्रेष्ठ मुहुर्त में राखी बाँधने से भाई को सौभाग्य और सफलता मिलती है ।
रक्षाबन्धन का शुभ मुहुर्त-
सुबह ०६:२१ से लेकर शाम ०५:२५ तक है।
कुछ विशेष मुहुर्त इस प्रकार है-
अभिजित मुहुर्त- दोपहर १२:१६ से १३:०७ तक
अमृतकाल मुहुर्त- सुबह ०९:३४ से ११:०८७ तक
इस प्रकार हम सुबह ०६:२१ से लेकर शाम ०५:२५ तक राखी का त्योहार मना सकते है क्योकि शाम ०५:२६ से राहुकाल प्रारम्भ हो जायेगा जो कि शाम ०७:०१ तक रहेगा। यह शुभ काल नही माना जाता। अतः शुभ मुहुर्त मे ही रक्षाबन्धन का त्योहार मनायें।
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