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बात थी हँसने की, मुस्कुरा न सके,
लोग अपना वादा निभा न सके।
एक आदमी में कई आदमी होते हैं,
अपना ही चेहरा पहचान न सके।
बोले थे घर सजा दूँगा सितारों से,
मगर धरती पे आसमां ला न सके।
आग लग गई जब पूरे गाँव में
वो अपना खुद का घर बचा न सके।
मौत की हो रही इस कदर बारिश,
लाशों को लोग कन्धा दे न सके।
जानेवाले चले गए, बहुत गम है,
हम उन्हें तूफाँ से बचा न सके।
आंसू पी-पी के कुछ जी रहे यहाँ,
उनकी फटी जिंदगी हम सी न सके।
एक सांस के सिवा वो मांगे ही क्या,
हम उन सांसों में सांस बढ़ा न सके।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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