नया सबेरा नेटवर्क
अजय कुमार
कोरोना महामारी के बीच नदियों में बड़ी संख्या में उतराती लाशों ने तमाम बीजेपी सरकारों की सांसे फुला दी हैं। विपक्ष हमलावर है तो सत्ता पक्ष सफाई देने में जुटा है। सबके अपना सच और दावे है। जनता को यह सच एवं दावों की हकीकत समझ में आए या नहीं लेकिन उसके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है, क्योेंकि यह वह दौर है जब नेता ही नहीं, बल्कि मीडिया भी किसी घटना की हकीकत दिखाने की बजाए उस घटना को कैसे मिर्चा-मसाला लगाकर बेचा जाय, इस पर ज्यादा ध्यान देता है। ऐसे में हमें-आपको किसी न किसी के ‘सच’ पर तो विश्वास करना ही पड़ेगा। हर मुद्दे पर तो कोर्ट अपना फैसला सुना नहीं सकती है।
वैसे ’लाशे’ भी तरह-तरह की होती हैं लेकिन सब ‘लाशों’ पर राजनैतिक हंगामा हो ऐसा भी जरूरी नहीं है। हमारे सियासतदार लाशों का धर्म, वर्ग, सम्प्रदाय और शहर-प्रांत देखकर ही सियासी सियापा करते हैं, इसीलिए तो उत्तर प्रदेश के हाथरस में जब किसी दलित लड़की के साथ अमानवीय कृत्य होता है तो वहां नेताओं से लेकर मीडिया तक का जमावड़ा लग जाता है लेकिन इन्हीं लोगों का राज्य के एक और जिला बलरामपुर में अनुसूचित जाति की एक महिला के साथ दो युवकों के दुष्कर्म और मौत के मामले में दिल जरा भी नहीं पसीजता है, क्योंकि दुष्कर्म करने वाले एक धर्म विशेष के थे जिन्हें कांग्रेस हों या फिर समाजवादी पार्टी अपना वोटबैंक समझती हैं। हद तो तब हो गई जब दलितों की मसीहा मायावती भी बलरामपुर की दुष्कर्म की घटना पर ज्यादा बोलने से परहेज करती दिखीं, क्योंकि उन्हें भी वोटबैंक की सियासत नजर आ रही थी।
खैर बात गंगा-यमुना या अन्य नदियों में मिली लाशों की कि जाए तो यह कहना मुश्किल है कि लाशें बहाने वाले कौन थे। जैसा की विपक्ष दावा कर रहा है कि योगी सरकार द्वारा गांवों तक में फैल चुकी कोरोना महामारी के आकड़े कम दिखाने के चक्कर मंे लाशें नदियों में बहायी जा रही है तोे ऐसा मानने वालों की संख्या भी कम नहीं है जिन्हंे लगता है कि यह लाशें मृतक के घर-परिवार वालों ने नदियों में प्रवाहित कर दी होंगी, क्योंकि इनका परिवार इस स्थिति मंे नहीं होगा कि मृतक का अंतिम संस्कार विधिपूर्वक करा सके। महामारी के चलते लोगों की आर्थिक स्थिति बेहद दयनीय हो गई है और अंतिम संस्कार की रस्म पूरी करने के लिए कम से कम 7-8 हजार रूपए का खर्चा तो गांवों मेे भी आ ही जाता है। इस समय अंतिम संस्कार के लिए श्मशान घाटों पर कतार लगी है। इस वजह से लकड़ियों की कीमतें बढ़ गई हैं। एक अनुमान के मुताबिक एक शव के अंतिम संस्कार में 7 से 9 मन लकड़ी की जरूरत होती है। एक मन का मतलब है 40 किलोग्राम यानी इस हिसाब से 300 से साढ़े 300 किलोग्राम लकड़ी की जरूरत होती है। पहले श्मशान घाट में अंतिम संस्कार के लिए 10 रुपये किलोग्राम में लकड़ी मिल जाती थी और पूरा खर्च आता था ढाई से 3 हजार रुपये लेकिन अब ये खर्च 7 से 8 हजार रुपये हो गया है, क्योंकि लकड़ियों की जमाखोरी हो रही है। वैसे एक तर्क यह भी है कि कोरोना के चलते काफी संख्या में मौतें हुई हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार कुछ सम्प्रदायों में मृतक को दफनाया जाता है जिनको जल्दबाजी में ठीक से दफनाया नहीं गया। इस कारण कई जगह कुत्ते लाशों को नोचते दिखे तो वहीं नदियों के किनारे जिन लाशों को दफनाया गया था, वह नदियों में पानी बढ़ने और मिट्टी हटने के कारण नदी में उतराने लगीं। हालांकि इसे रोकने के लिए अब सरकारों ने कड़े कदम उठाने शुरू कर दिए हैं। उत्तर प्रदेश में इस पर अब सख्ती बढ़ा दी गई है और सरकार ने गंगा किनारे वाले इलाकों में पुलिस की भी तैनाती कर दी है जबकि बिहार सरकार ने गंगा नदी के किनारे लाशों को दफनाने पर रोक लगा दी है।
बहरहाल हिन्दुस्तान में लाशों की सियासत कोई नई नहीं है। इससे भले ही नेताओं और उनके दलों को फायदा हो लेकिन नुकसान मरने वाले के परिवार और मिलजुल कर रहने वाले समाज का ही होता है। सरकार के हौसले पस्त जो जाते हैं तो सरकार, शासन-प्रशासन, पुलिस से लेकर न्यायतत्र तक को अपना काम करने में समस्या होती है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन सिंह के बयान से सरकार के दर्द को समझा जा सकता है, वह कह रहे हैं कि जहां देश कोरोना का डटकर मुकाबला कर रहा है, वहीं कुछ लोग शवों पर सियासत से बाज नहीं आ रहे हैं। कोरोना से मिले जख्मों पर मरहम लगाने के बजाय मौके को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। मंत्री जी का इशारा कांग्रेस और गांधी परिवार पर था। इस परिवार पर तीखा हमला बोलते हुए हर्षवर्धन ने लाशों पर राजनीति को लेकर कांग्रेस की तुलना गिद्धों से कर डाली। उन्होंने ट्वीट करते हुए लिखा कि लाशों पर राजनीति कांग्रेस का स्टाइल है, पेड़ों से गिद्ध भले ही विलुप्त हो रहे हों लेकिन लगता है कि उनकी ऊर्जा धरती के गिद्धों में समाहित हो रही है। राहुल गांधी को दिल्ली से ज्यादा न्यूयार्क पर भरोसा है। लाशों पर राजनीति करना कोई धरती के गिद्धों से सीखे। डा. हर्षवर्धन का ये ट्वीट राहुल गांधी के उस ट्वीट के जवाब में आया जिसमें उन्होंने मौतों के आंकड़ें पर राजनीति करने की कोशिश की थी। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने हाल में ही न्यूयार्क टाइम्स का एक ग्राफिक्स ट्वीट किया था जिसमें कोरोना से मौत के सरकारी और अनुमानित आंकड़े लिखे थे, इसके साथ राहुल गांधी ने लिखा कि आंकड़े झूठ नहीं बोलते भारत सरकार बोलती है।
लब्बोलुआब यह है कि आज भले नदियों में मिली लाशों पर सियासत हो रही हो लेकिन इतिहास गवाह है कि हिन्दुस्तान की सियासत मे लाशों पर सियासत का खेल नया नहीं है। तमाम राजनैतिक दल चाहें बीजेपी हो या फिर कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, लालू यादव की पार्टी, आम आदमी पार्टी आदि किसी भी मौके पर हुई मौत के बाद लाशों पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकते से चुके नहीं हैं। राजनीति ये सभी पार्टियां करती हैं, बस मतलब इससे है कि मौत का हिसाब किसके खिलाफ जाता है। अगर बीजेपी के शासन के दौरान किसी दंगे, पुलिस मुठभेड़, बलात्कार के किसी मामले के बाद मौत या आत्महत्या होती है तो कांग्रेस, सपा, बसपा हो या अन्य दलों का इस पर राजनीति करना सियासी अधिकार समझा जाता है। ठीक इसी तरह अगर कांग्रेस, ममता बनर्जी या आम पार्टी के शासन में ऐसी घटना घटती है तोे बीजेपी इसे अपना राजनीतिक अधिकार समझती है। मगर सच यही है कि राजनीति करने वालों की मंशा सच्ची हो या झुठी, मौत जरूर सच्ची और दुखद ही होती है। मगर इसे कोई बंद नहीं कर सकता है। राजनीतिक शुरूआत सोशल मीडिया अथवा प्रिट या न्यूज चैनल पर बयान से शुरू होकर सड़क पर थोड़ा-बहुत हंगामा करके वोट बैकं सहेजने के बाद खत्म हो जाती है। राजनीति ऐसी होती है कि ये नेता किसी भी माध्यम को नहीं छोड़ना चाहते। अखबार, टीवी, या फिर सोशल मीडिया हर तरफ ये लोग राजनीति ही करते दिखाई पड़ते हैं।
बहरहाल बात सियासत की हो रही है तो सबसे पहले बात करते हैं शहीद हेमराज से। जब हेमराज की मौत हुई तो बीजेपी के कई नेता उनके घर पहुंचे। घर पहुंचने में देरी नहीं की। उनके परिवार से मिले कोई समस्या नहीं थी। मगर वहां जाकर कहा कि सरकार कुछ नहीं कर रही है। हमारे जवान शहीद हो रहे हैं। हमारी सरकार अगर आयेगी तो हम एक सिर के बदले 10 सिर ले आएंगे। जिस नेत्री ने यह बयान दिया था, वह आज भले हमारे बची नहीं हों लेकिन इनकी शालीनता में कोई कमी नहीं थी, फिर भी राजनीति में ऐसे बयान जरूरी भी समझे जाते हैं। इसके बाद जब दादरी कांड हुआ। गाय का मांस खाने के कारण अखलाक कि हत्या हुई। इसके बाद तो जैसे राजनीति करने वालों की लाइन सी लग गई। एक प्रतिस्पर्धा शुरु हो गई कि कौन कितनी राजनीति करता है। असदुद्दीन ओवैसी, कांग्रेस के राहुल गांधी, बीजेपी से महेश शर्मा और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल। हर कोई दादरी गया और इसे शर्मनाक बताया। इसके बाद कईयों ने तो अपने अवार्ड लौटा दिये। अखिलेश सरकार ने लाखों रुपये का मुआवजा दिया गया।
एक समय जब भूमि अधिग्रहण बिल पर सियासत जोरो पर थी। जंतर-मंतर पर आम आदमी पार्टी ने एक रैली का आह्वान किया था तब ही राजस्थान के रहने वाले एक किसान गजेंद्र सिंह ने सबके सामने पेड़ पर फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। इसके बाद बीजेपी और कांग्रेस ने जो राजनीति की, उसे तो सारे देश ने देखा। आज तक चैनल की बहस में तो आप नेता आशुतोष फूट-फूट कर रो दिए थे। प्रधानमंत्री ने भी ट्वीट कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त थी। जब उरी हमला हुआ हमारे 19 जवान शहीद हो गये। विपक्ष ने इस पर भी खूब राजनीति कि कहा कि पहले इतना कहते थे कि एक सिर के बदले 10 सिर लाऐंगे, अब क्या हुआ? इसके बाद सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक किया। 40 आतंकियों को मार गिरायां इसके बाद बीजेपी ने यूपी में पोस्टर तक लगवा दिए कि प्रधानमंत्री ने लिया पाकिस्तान से बदला। फिर राहुल गांधी पिछड़े तो उन्होंने कहा कि मोदी सरकार खून कि दलाली कर रही है। उधर केजरीवाल ने सर्जिकल स्ट्राइक का सबुत तक मांग लिया। सीएए यानी नागरिकता सुरक्षा एक्ट पास होने के बाद जो धरने और अवार्ड वापसी का खेल चला थो, उसे कौन भूल सकता है। अमेरिका के तत्कालीन प्रेसींडेट के भारत आगमन पर सोची-समझी साजिश के तहत सीएए की आड़ में दंगा भड़काया गया। इसी प्रकार नये कृषि कानून के खिलाफ पूरे देश में दंगा भड़काने की साजिश में तो बाहरी मुल्क भी शामिल दिखे। अब तो टूलकिट के सहारे नियोजित तरीके से देश को दूसरे मुल्कों में बदनाम करने की साजिश में भी नेता पीछे नहीं रह गए हैं। कुल मिलाकर नदियों में लाश मिलने पर कुछ नेताओं का सियापा कोई नया नहीं है। यह वैसे ही है, जैसे किसी पुरानी बोतल में नई शराब बेचना।
(लेखक उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ मान्यताप्राप्त पत्रकार एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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