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आज हम फ़िर लौटे
प्रार्थनाघरों से
हताश उदास चुपचाप
होठों को सिए हुए
सिर झुकाए
आज फिर हमने तुम्हें देखा
कंधे पर सलीब उठाए
काँटों का ताज पहने
सधे कदम मक़्तल जाते
बेबस निगाहों से
ताकते रहे हम
हाथ पैरों में ठुकती कीलें
तुम्हारी करुण मुस्कान
भयावह समय में
अन्यायी सत्ता की पनाह में
करते रहे सिर्फ़ इंतज़ार
अपना सिर बचाते हुए
कभी नहीं देख पाए
अपनी आत्मा के
भयावह अंधेरे में
तुम्हें छटपटाते हुए
परमपिता की रौशनी बन
तुम उतरे थे हमारे भीतर
हमने पहचाना नहीं
अंधेरे का डर बहुत गहरा था
तुम्हारी तरह निर्भय
तुम्हारी तरह करुण
नहीं बन पाए हम
यह तुम्हारी नहीं
हमारी पराजय है
पराजित हम
हर बार लौटते हैं
हर दिन लौटते हैं
तुम्हें टाँग कर
अपनी कामनाओं के सलीब पर
-हूबनाथ
प्रोफेसर, मुंबई विश्वविद्यालय
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