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बे- मास्कवालों से डर लगता है,
कहीं आने -जाने में डर लगता है।
कैसे समझाऊँ दुनियावालों को,
अब दरो-दीवार से डर लगता है।
हालात बेकाबू होते जा रहे,
कालाबाजारियों से डर लगता है।
सियासी दुकान सजाकर जो बैठे,
उस नंगी सोच से डर लगता है।
डॉक्टर,नर्स इन सबका करो अदब,
जो करते न सम्मान, डर लगता है।
जिनके इरादे अमावस के जैसे,
ऐसे उजालों से डर लगता है।
छूत की महामारी देखो, कोरोना,
समझते न कायदा, डर लगता है।
डरो न वायरस से, वसूल पर चलो,
शरारती तत्त्वों से डर लगता है।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई,
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