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केंद्र, राज्य व केंद्रशासित प्रदेश सरकारों द्वारा लाभ के पद की व्याख्या विस्तृत रूप से कर नियम बनाने की जरूरत - एड किशन भावनानी
गोंदिया - भारत में वर्तमान परिपेक्ष में हम देखें तो कई ऐसे अधिकारी अपने पदों से इस्तीफा देकर या पूर्व अधिकारी राजनीतिक क्षेत्र में आकर चुनाव लड़कर विधायक,सांसद बनकर बैठे हैं और इस ट्रेंड की विस्तृतता में हम देखते हैं कि पंचायत चुनाव से लेकर पार्षद, विधायक, सांसद के चुनाव में हमें देखने को मिलता है कि लाभ का पद प्राप्त होने के बावजूद उनकी संकुचित व्याख्याको आधार बनाकर चुनावी या अन्य सार्वजनिक क्षेत्र में उतरने की कोशिश करते हैं। अतः अब जरूरत आन पड़ी है कि केंद्र, राज्य व केंद्रशासित प्रदेशों की सरकारों द्वारा लाभ के पद की व्याख्या विस्तृत रूप से कर नियम,विनियम बनाए जाएं ताकि जो कुछ लिकेजेस हैं, उनको बंद किया जा सके। हालांकि इस तरह के अधिनियम कुछ मौजूद हैं तथा संविधान में भी अनुच्छेद 21, 21ए भी है, परंतु स्वाभाविक रूप से कुछ गैप्स हैं जिसका फायदा संबंधित व्यक्ति उठा लाभ का पद होने के बावजूद चुनाव क्षेत्र में आने की कोशिश करते हैं और उसके लिए वह नियम विनियम बनाना जरूरी हो गया है।... इसी विषय पर आधारित एक मामला माननीय केरला हाईकोर्ट में बुधवार दिनांक 24 फरवरी 2021 को माननीय 2 जजों की बेंच,जिसमें माननीय न्यायमूर्ति मुख्य न्यायाधीश एस मनीकुमार तथा माननीय न्यायमूर्ति शाजी पी चेली की बेंच के सम्मुख रिट पिटिशन (सिविल) क्रमांक 16198/2010 सहित अन्य और कई याचिकाएं, अनेक याचिकाकर्ता बनाम स्टेट आफ केरला व अन्य के रूप में आया माननीय बेंच ने सभी पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद अपने विस्तृत 193 पृष्ठों और 185 पॉइंटों के विशाल आदेश में पॉइंट नंबर 182 में कहा कि शिक्षक एक जनतंत्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है और शिक्षा अधिनियम 2009 व राज्य अधिनियम तथा संविधान के अनुच्छेद 21 21ए में इस संबंध में शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका है और उपरोक्त चुनाव में लड़कर और यदि जीत जाता है तो प्रतिनिधि के रूप में उसकी जवाबदारी बढ़ेगी और छात्रों के साथ उचित नहीं होगा अतः यह नहीं कहा जा सकता कि सहायता प्राप्त स्कूल के शिक्षक का पद लाभ का पद नहीं है और विधानसभा अयोग्यता को हटाना अधिनियम 1951 की धारा 2(4)अधिकार बाह्य है और वैध नहीं है संविधान के अनुच्छेद 21ए का अभाव भी और असविंधानिक घोषित किया गया और याचिका डिस्पोज की गई। आदेश कॉपी के अनुसार बेंच का निर्णय था कि राज्य विधानसभा और संसद सहित स्थानीय निकायों के चुनाव में सहायता प्राप्त स्कूलों के अध्यापक नहीं लड़ सकते। बेंच में कहा गया है कि केरल राज्य के अंतर्गत, केरल शिक्षा अधिनियम 1958 के प्रावधानों के अनुसार, एक सहायता प्राप्त शैक्षिक संस्थान के शिक्षक और उसके तहत बनाए गए नियमों में केरल राज्य की सरकार के अधीन 'लाभ का कार्यालय' धारण करने वाला व्यक्ति है। न्यायालय ने यह घोषणा करते हुए कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 क के अधीन प्रत्याभूत संवैधानिक अधिकार अर्थात बच्चों के मूल अधिकार को किसी भी रूप में अनधिकृत नहीं किया जा सकता। बेंच ने हालांकि, स्पष्ट किया कि यह निर्णय प्रकृति में संभावित होगा। यह महत्वपूर्ण निर्णय रिट याचिका के एक बैच में आया, जिनमें से कुछ को स्वयं 2010 में दायर किया गया था। विधानसभा (अयोग्यता को हटाना) अधिनियम, 1951 की धारा 2(4) में यह प्रावधान किया गया है कि कोई व्यक्ति केरल राज्य की विधान सभा के सदस्य के रूप में तथा उसके लिए चुने जाने के लिए अयोग्य नहीं माना जाएगा केवल - (4) केवल इसलिए कि वह सरकारी संस्थान के अलावा किसी अन्य शैक्षणिक संस्थान में पद धारण करता है। बेंच अपने निर्णय में संविधान के निम्नलिखित उपबंधों का उल्लेख करती है, संसद के किसी भी सदन की सदस्यता के लिए अयोग्यता, किसी राज्य की विधान परिषद या विधान परिषद की सदस्यता के लिए अयोग्यता से संबंधित भारत के संविधान के अनुच्छेद 191, भारत के संविधान के अनुच्छेद 243 च और 243 वी, सदस्यता के लिए अनर्हता से संबंधित, पंचायत और नगरपालिका के सदस्य के रूप में चयन के विषय में।निर्णय में किए गए कुछ अवलोकन निम्नलिखित हैं। शिक्षक, शिक्षक के रूप में कर्तव्य को कभी नहीं छोड़ सकते हैं, टुकड़े टुकड़े में, या अंशकालिक सगाई के रूप में,यद्यपि शिक्षकों की बड़ी भूमिका निभाने की है, लोकतंत्र को आकार देने और उसके संरक्षण में, संविधान निर्माताओं द्वारा जिसकी परिकल्पना की गई है। यह हम इसलिए कहते हैं कि शिक्षक,लाभ का पद लेने से, कभी भी कर्तव्य का पालन नहींकर सकता क्योंकि भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 और 21ए के अंतर्गत संविधान निर्माताओं द्वारा कल्पना की गई भक्ति, ध्यान, नियमितता और समर्पण के कारण शिक्षा अधिनियम,2009 और राज्य के कानूनों के अंतर्गत शिक्षक को इसमें शामिल होना है। एक शिक्षक चुनाव अवधि के दौरान, छात्रों के कारणों पर अपना ध्यान कभी नहीं दे सकता है। विधान सभा और स्थानीय निकायों के निर्वाचित सदस्यों के कृत्य और कर्तव्य इतने जटिल, कर्तव्यनिष्ठ, सतर्क, समय-साध्य होते हैं और जब तक निर्वाचित सदस्य नागरिकों के हितों के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित नहीं हो जाता, तब तक वह अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते। किसी सहायता प्राप्त विद्यालय में काम कर रहे अध्यापक, जो विधानसभा के सदस्य या पार्षद या स्थानीय निकायों के वार्ड सदस्य के रूप में, जैसा भी मामला हो, चुनाव की अवधि के दौरान छात्रों के उद्देश्य की ओर कभी भी ध्यान नहीं दे सकते और एक बार उनका चयन कर लेने के बाद प्रतिनिधि के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए समय नहीं निकाल सकते।सबसे बड़ी बात तो यह है कि शिक्षा का क्षेत्र वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धी बन गया है क्योंकि अधिकांश देशों ने विद्यार्थियों को दुनिया भर में शिक्षा प्राप्त करने के लिए सक्षम बनाने के अवसर खोल दिए हैं और इसलिए बच्चों को आरंभिक उम्र में ही पढ़ाया जाना है। पूर्वोक्त पहलुओं को ध्यान में रखते हुए और विचार किए गए निर्णयों को ध्यानमें रखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि सहायता प्राप्त विद्यालय में काम कर रहे शिक्षक राज्य सरकार के तहत 'लाभ का कार्यालय' रखने वाला व्यक्ति नहीं है।
-संकलनकर्ता कर विशेषज्ञ एड किशन सन्मुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र
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