उत्तर प्रदेश के कलाकारों का पुनर्मूल्यांकन जरूरी | #NayaSaberaNetwork

  • प्रो मदन लाल नागर आधुनिक कला के लिए उनके प्रयोगों के अनवरत यात्रा उन्हें सदा इतिहास का संवाद बनाये रखेगी
  • कला के विभिन्न मंचों पर और अनेकों लेखों, टिप्पणियों के द्वारा याद किये गए प्रो. मदन लाल नागर
भूपेंद्र कुमार अस्थाना
अस्थाना आर्ट फ़ोरम के तत्वावधान में अपने वरिष्ठ कलाकारों को उनके जीवन से जुड़े विशेष तिथि पर स्मरण करने के लिए एक श्रृंखला " कलाकार स्मृति व्याख्यान माला " की शुरुआत की गई । इसके अंतर्गत उन कलाकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर चर्चा करते हुए आज की पीढ़ी को उनसे परिचित कराना और उनकी स्मृतियों को सजोना प्रमुख उद्देश्य है।
आज प्रो मदन लाल नागर के 36वीं पुण्यतिथि पर याद करते हुए सर्वप्रथम लखनऊ कला महाविद्यालय के और प्रो नागर के रहे छात्र श्री राम जायसवाल ( अजमेर राजस्थान) ने कहा की मदन लाल ऐसे कला गुरु थे जिन्होंने जीवन के कई सूत्र दिये जिससे की जीवन निर्वाह करने में सफल हो सके । जिससे जीवन निर्वहन मे होने वाले कठिनाइयों से बचा जा सके । उन्होंने हमेशा कलाकारों को प्रेरित किया उनकी प्रेरणा से हमने अपनी चित्रों मे प्रयोगवादी दृष्टिकोण अपनाया जिसे बहुत पसंद किया गया। उन्होंने कहा था की कलाकार को अपनी कृतियों का मूल्य कम नहीं आंकना चाहिए और इसके लिए जायसवाल जी ने एक प्रसंग बताया कि हमने जिस कृति का मूल्य 100 रुपए रखा था बाद मे नागर साहब ने उसे 1000 रुपये कर दिया जिसे बाद में नेशनल मॉडर्न आर्ट गैलरी ने उसे एक लाख में ख़रीदा। तो उनके हिसाब से आत्मसम्मानी होना चाहिए कलाकार को ।
चंडीगढ़ से श्री प्रेम सिंह ने कहा की यह वरिष्ठ कलाकारों को याद करने की परंपरा बहुत ही सराहनीय कार्य है। नहीं तो आज की स्थिति ये है की अपने ही विद्यालय के पूर्व अध्यापकों और कलाकारों को आज के छात्र अच्छी तरह से नहीं जानते इसके लिए विश्वविद्यालयों और कला महाविद्यालयों में हर पुस्तकालयों में एक खंड बनाया जाना चाहिए जिसमें की उन सभी कला गुरुओं और कलाकारों के संबन्धित सभी प्रकार के सामग्री संग्रह हो सके और वर्तमान छात्र उन कला के महान विभूतियों को पढ़,देख,सुन और समझ सकें ताकि उन्हें अपने महाविद्यालय के इतिहास की अच्छी जानकारी हो सके ।
उमेश कुमार सक्सेना ने अपने छात्र जीवन की तमाम संस्मरण और प्रसंग को रखा जिससे उन्हे आज भी प्रेरणा मिलती है और इस प्रकार के कलाकारों को याद करने की परंपरा को सराहा ।
    भारत के प्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार , समीक्षक श्री प्रयाग शुक्ल ने कहा की यह अच्छी बात है की हम अपने कला के पूर्वजों को याद कर रहें हैं ,बल्कि मदन लाल नागर को ही सिर्फ नहीं याद कर रहे बल्कि उस समय को भी याद कर रहे हैं जिस समय में उन कलाकारों ने समकालीन कला मे अपना विशेष योगदान दिये और जिस छत्रछाया में आज हम सभी फल फूल रहे हैं । एक बात यह अवश्य है की उत्तर प्रदेश के कलाकारों की पुनर्मूल्यांकन होना जरूरी है ताकि समकालीन कला और आधुनिक भारतीय कला में एक स्थान सुनिश्चित हो सके और इस बात का भी ध्यान रखा जाए की जिस काल में यह काम कर रहे थे उस समय समकालीन कला परिदृश्य क्या था और किस माहौल में उन लोगों ने काम किया। इसके लिए ऐसे आयोजनों में लोगों को एकजुट होकर प्रदेश के कला और कलाकारों को सहेजने और सँवारने का प्रयास अवश्य करना चाहिए ताकि आने वाले भविष्य में प्रदेश की कला और कलाकारों को लोग जान और समझ सकें ।
इसी कड़ी मे पटना से पद्मश्री श्याम शर्मा ने कहा की प्रो मदन लाल नागर जितने ही आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे उतने ही उनकी सहज , सरल और मधुर बाणी भी थी । यह मेरे लिए बड़ा सौभाग्य रहा की मैं नागर जी का छात्र रहा । शर्मा जी ने भी अपने छात्र जीवन के कई प्रसंग भी साझा किए ।
इसी श्रृंखला में वरिष्ठ कलाकार श्री जयकृष्ण अग्रवाल ने भी नागर साहब के साथ व्यतीत किए हुए पलों की स्मृतियों को साझा किया । आगे कहा की जहां तक नागर जी का प्रश्न है उनके कृतित्व , व्यक्तित्व और जीवन से जुड़ी बातों को एक वक्तव्य में समेत पाना असंभव है । नागर जी उत्तर प्रदेश के आधुनिक कला आंदोलन के अग्रणीय कलाकार रहे थे ।
आगरा से डॉ रेखा कक्कड़ ने भी नागर साहब से जुड़ी हुई और अपने कला महाविद्यालय मे दाखिले के समय हुए प्रसंग को तथा अनेकों स्मृतियाँ साझा की ।
अस्थाना आर्ट फोरम के भूपेंद्र कुमार अस्थाना ने कहा की इस प्रकार के आयोजन से हम उन कला ऋषियों को तो याद करते ही हैं साथ ही प्रदेश की कला और कलाकारों का नाम भी सम्मानित होता है और वहाँ की कला संस्कृति भी मजबूत होती है । ऐसे आयोजनों से कलाकारों के साथ एक संवाद भी स्थापित होती है।
अंत में कार्यक्रम के संयोजक अखिलेश निगम ने सबका धन्यवाद ज्ञापित किया और कहा की भले ही नागर साहब प्रधानाचार्य नहीं बने लेकिन कला महाविद्यालय को स्वर्णिम काल मे ले जाने मे खास्तगीर साहब के साथ उनका बड़ा योगदान रहा है । इसके लिए कला महाविद्यालय मे बन रहे संग्रहालय का नाम नागर साहब के नाम पर रखा जाए यही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि होगी । क्योंकि आज लखनऊ विश्वविद्यालय अपने शताब्दी वर्ष माना रहा है जबकि कला महाविद्यालय 2011 में ही अपने 100 वर्ष पूरे कर लिये है जिसकी स्थापना 1911 में हुई थी । निगम ने बताया इस प्रकार कला मनीषियों को याद करने की शृंखला मे अस्थाना आर्ट फोरम के भूपेंद्र कुमार अस्थाना , कलाचर्चा के ताराचंद शर्मा और कला वृत्त के संदीप सुमहेंद्र  अपने मंच और तमाम तरीके से इस शृंखला में अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं । 
ये हमारे इस शृंखला के तीन सदस्य के रूप में हैं जिसके कारण इस प्रकार का आयोजन सफल हो रहा है और भविष्य में भी सफल होता रहेगा ।
साथ ही मदन लाल नागर के सुपुत्र अक्षय नागर ने सभी का आभार व्यक्त करते हुए कला गुरु और अपने पिता प्रो मदन लाल नागर के तमाम अपने बचपन के समय की बातों को साझा की किस प्रकार वे कला सृजन करते थे । उन्होंने बताया की नागर साहब राजस्थानी कला , सूरदास , कबीर दास को लेकर एक शृंखला बनाना चाहते थे । जिसकी वे रेखांकन बना चुके थे लेकिन उसे पूरा नहीं कर सके ।

मदन लाल नागर जी के कला कृतियों पर भी लोगों ने चर्चा की.        
      चित्रकार नागर संवेदनाओं व् वातावरण के कलाकार थे, साथ ही मानसिक विश्लेषण के बुद्धिजीवी चित्रकार थे । नगर के चित्रों में पोर्ट्रेट पेंटिंग के बारे में कहा की यह मुझ जैसी लखनवी का चेहरा है जिसमें समाया है इतिहास उसकी गौरव गाथा की कला लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर लखनऊ की तंग गलियों व् ऐतिहासिक इमारतों आदि के प्रतीकात्मक मौलिक संयोजनों के लिए उनकी पहचान को मूल्यांकित किया गया है. नागर में चित्रकार के साथ ही योग्य अध्यापक, लेखक, समीक्षक एवं कला संस्थानों के संगठनात्मक दायित्व के गुण भी समाहित थे. उनका जन्म 5 जून,1923 को लखनऊ के पुराने इलाके चौक में हुआ, उनकी कला शिक्षा, कला एवं शिल्प विद्यालय, लखनऊ से हुई और यही वह 1956 अध्यापक नियुक्त हुए . 1983 ललित कला विभाग के प्रोफेसर एवं अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए और 27 अक्टूबर 1984 को यही देहावसान हुआ।
    नागर जी शुरू से ही आज़ादी के पक्षधर थे , लेकिन प्रारम्भ में आकृतियों के अध्ययन , प्रकृति को यथार्थ चित्रार्थ एवं स्केचिंग आदि को महत्व देते रहे थे और उनका वाही संवाद विद्यार्थियों के लिए भी हुआ करता था। 1946 में डिप्लोमा प्राप्त करने के बाद वह स्वतंत्र कलाकार के रूप में निकल पड़े और उन्होंने विशेष रूप से उत्तर प्रदेश वह हिमाचल के पहाड़ी एवं बॉम्बे के भागते दौड़ते जीवन को कैनवस की भाषा दी , साथ ही उन्होंने विद्यार्थी जीवन के बाद के चरण में धर्म व् समय के विभिन्न पहलुओं , ग्रामीण जीवन , बज़्ज़र व् मंदिरों व् साधु संतों को अपनी कला का विषय बनाया .1960 , से नागर जी की कला यात्रा में एक विशेष परिवर्तन में पुराने लखनऊ का चरित्र प्रमुख बना . यद्यपि उस दौरान उन्होंने युद्ध , भुखमरी ,अकाल , बाढ़ , तड़पन महामारी, तथा राम व् तुलसी को भी चित्रित किया , लेकिन लखनवी वातावरण जिनके लिए उन्होंने ध्यानवादी, उभरे व् स्पष्ट आकारों को प्रमुखता दी , उनके मौलिक हस्ताक्षरों के मूलाधार बने .नागर ने ओल्ड सिटी व् सिटी स्केप के शीर्षक से लखनऊ की टेढ़ी मेढ़ी सर्पदार गलियों पतली व् चपटी दीवारो के मोड़ , गली के आलो में पूजा के देव आदि को अपनी सोच के संयोजनों में तैल रंगो व् काली स्याही के रेखांकन में अभिव्यक्त किया कला विभूति नागर बहुआयामी एवं व्यापक दृष्टिकोण के व्यक्ति थे  । इस ऑनलाइन आयोजन में बड़ी संख्या में उपस्थित  हुए। 


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